बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-2 समाजशास्त्र बीए सेमेस्टर-2 समाजशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-2 समाजशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 9
विवाह
(Marriage)
"विवाह कन्या को पत्नी बनाने के लिये एक निश्चित क्रम से की जाने वाली अनेक विधियों से सम्पन्न होने वाला पाणिग्रहण संस्कार है, जिसकी अन्तिम विधि सप्तर्षि दर्शन है।" -मेद्यातिथि
न गृहं गृह मित्याहुर्गृहणी, गृहमुच्यते
गृहंतु गृहिणी ही नमरण्यसदृशं मतम् ।
॥ शान्तिपर्व 144/6 ॥
उपर्युक्त श्लोक से स्पष्ट होता है कि गृहपति के लिये स्त्री को ब्याहकर लाना अनिवार्य है। गृहणी के बिना गृहस्थ जीवन के संस्कारों का सम्यक रूप से विवाह नहीं हो सकता। बिना गृहणी के घर जंगल के समान होता है।
हिन्दुओं के मीमांसा शास्त्र से सिद्ध होता है कि सृष्टि के प्रारम्भ से ही स्त्री धारा और पुरुष धारा यह दो स्वतन्त्र धाराएँ चलीं। मनु के अनुसार सृष्टि के प्रारम्भ में परमात्मा ने अपने को दो भागों में विभक्त किया, वे आधे में पुरुष और आधे में नारी हो गये। नारी शक्ति है, पुरुष के बिना प्रकृति भी अधूरी है और प्रकृति के बिना पुरुष अधूरा। इससे यह सिद्ध होता है कि स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं। हिन्दू विवाह इसी पूरकता का परिचायक है। उत्तर वैदिक युग से ही विवाह को अत्यधिक महत्व दिया गया है क्योंकि विवाह ही गृहस्थाश्रम का प्रवेश द्वार है और गृहस्थाश्रम में प्रवेश किये बिना मनुष्य अपने धर्म का यथारीति पालन नहीं कर सकता । हिन्दू विवाह अन्य धर्मों के विवाहों की तरह समझौता नहीं है, अपितु यह जन्म जन्मान्तर का साथ माना जाता है। यह एक ऐसा पवित्र संस्कार माना जाता है जिसे तोड़ना ईश्वरीय विधान के प्रतिकूल माना जाता है। विवाह एक ऐसी संस्था है जो दुनिया के सभी समाजों में सभी कालों में पाई जाती है।
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